Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



108. भद्रनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू

बहुत दिनों बाद वैशाली में अकस्मात फिर उत्तेजना फैल गई । उत्तेजना के विषय दो थे, एक मगध महामात्य आर्य वर्षकार का मगध - सम्राट् से अनादृत होकर वैशाली में आना; दूसरा विदिशा की अपूर्व सुन्दरी वेश्या भद्रनन्दिनी का वैशाली में बस जाना । जिस प्रकार आर्य वर्षकार उस समय भू - खण्ड पर विश्व -विश्रुत राजनीति के पण्डित प्रसिद्ध थे , उसी प्रकार भद्रनन्दिनी अपने रूप , यौवन और वैभव में अपूर्व थी । देखते ही देखते उसने वैशाली में अपने वैभव का एक ऐसा विस्तार कर लिया कि अम्बपाली की आभा भी फीकी पड़ गई । नगर - भर में यह प्रसिद्ध हो गया कि भद्रनन्दिनी विदिशा के अधिपति नागराज शेष के पुत्र पुरञ्जय भोगी की अन्तेवासिनी थी । वह नागकुमार भोगी के असद्व्यव्हार से कुपित होकर वैशाली आई है । उसके पास अगणित रत्न , स्वर्ण और सम्पदा है । उसका रूप अमानुषिक है और उसका नृत्य मनुष्य को मूर्छित कर देता है । सभी महारागों और ध्वनिवाद्य में उसकी असाधारण गति है। वह चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं की पूर्ण ज्ञाता , सर्वशास्त्र -निष्णाता दिव्य सुन्दरी है । वह अपने यहां आनेवाले अतिथि से केवल नृत्य -पान का सौ सुवर्ण लेती है। वह अपने को नागराज भोगी पुरञ्जय की दत्ता कहती है और किसी पुरुष को शरीर -स्पर्श नहीं करने देती । वैशाली के श्रीमन्त सेट्टिपुत्र और युवक सामन्त उसे देखकर ही उन्मत्त हो जाते हैं । उसका असाधारण रूप और सम्पदा ही नहीं , उसका वैचित्र्य भी लोगों में कौतूहल की उत्पत्ति करता है । नागपत्नी को देखने की सभी अभिलाषा रखते हैं । जो देख पाते हैं वे उस पर तन - मन वारने को विवश हो जाते हैं , परन्तु किसी भी मूल्य पर वह किसी पुरुष को अपना स्पर्श नहीं करने देती है । उसकी यह विशेषता नगर - भर में फैल गई है। लोग कहते हैं , इसने देवी अम्बपाली से स्पर्धा की है। कुछ कहते हैं , नागराज ने देवी अम्बपाली से प्रणयाभिलाषा प्रकट की थी , सो देवी से अनादृत होकर उनका मनोरंजन करने को यह दिव्यांगना छद्मवेश में नागराज ने भेजी है । भद्रनन्दिनी का द्वार सदा बन्द रहता था । द्वार पर सशस्त्र पहरा भी रहता था , पहरे के बीच में एक बहुत भारी दर्दुर रखा हुआ था , जो आगन्तुक सौ सुवर्ण देता , वही दर्दुर पर डंका बजाता , प्रहरी उसे महाप्रतिहार को सौंप देता और वह आगन्तुक को भद्रनन्दिनी के विलास कक्ष में ले जाता, जहां सुरा , सुन्दरियां और कोमल उपधान उसे प्रस्तुत किए जाते । एक नियम और था , सौ स्वर्ण लेकर एक रात्रि में वह केवल एक अतिथि का मनोरंजन करती थी । तरुण श्रीमन्तों का सामूहिक स्वागत करने का उसका नियम न था ।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी थी । रात अंधेरी थी , पर आकाश स्वच्छ था । उसमें अगणित तारे चमक रहे थे। माघ बीत रहा था । सर्दी काफी थी । नगर की गलियों में सन्नाटा था । डेढ़ पहर रात्रि व्यतीत हो चुकी थी । एक तरुण अश्व पर सवार धीर - मन्थर गति से उन सूनी वीथिकाओं में जा रहा था । भद्रनन्दिनी के सिंह- द्वार पर आकर वह अश्व से नीचे उतर पड़ा ।

ड्योढ़ी के एक दास ने आगे बढ़कर अश्व थाम लिया। प्रहरियों के प्रधान ने आगे बढ़कर कहा - “ भन्ते सेनापति , आप चाहते क्या हैं ? ”

जिस तरुण को सेनापति कहकर सम्बोधित किया गया था , उसने उस प्रतिष्ठित सम्बोधन से कुछ भी प्रसन्न न होकर एक भारी- सी किन्तु छोटी थैली उसकी ओर फेंक दी और आगे बढ़कर डंका उठा दर्दुर पर चोट की । दूर - दूर तक वह शब्द गूंज उठा । प्रहरी ने आदरपूर्वक सिर झुकाकर द्वार खोल दिया ।

प्रहरी विदेशी था । वह जितना शरीर से स्थूल था , वैसी ही स्थूल उसकी बद्धि भी थी । उसने डरते - डरते झुककर पूछा - “ सौ ही स्वर्ण हैं भन्ते , कम तो नहीं ? ”

“ कुछ अधिक ही है।

“ सौ तेरी स्वामिनी के लिए और शेष तेरे लिए हैं । ”तरुण ने मुस्कराकर कहा ।

प्रहरी खुश हो गया । उसने हंसकर कहा - “ आपका कल्याण हो भद्र, यह मार्ग है , आइए! ”

भीतर अलिन्द में जाकर उसने महाप्रतिहार पीड़ को पुकारा । प्रतिहार अतिथि को भद्रनन्दिनी के निकट ले गया । भद्रनन्दिनी ने उसे ले जाकर बहुमूल्य आसन पर बैठाया और हंसकर कहा - “ भद्र , कैसा सुख चाहते हैं - पान , नृत्य , गीत , द्यूत या प्रहसन ?

“ नहीं प्रिये, केवल तुम्हारा एकान्त सहवास , तुम्हारा मृदु- मधुर वार्तालाप । ”

“ तो भन्ते, ऐसा ही हो ! ”उसने दासियों की ओर देखा । दासियां वहां से चली गईं । द्वारों और गवाक्षों पर पर्दे खींच दिए गए। एक दासी एक स्वर्ण- पात्र में गौड़ीय स्फटिक पानपात्र और बहुत - से स्वादिष्ट भूने शल्य मांस -श्रृंगाटक रख गई ।

भद्रनन्दिनी ने कहा - “ अब और तुम्हारा क्या प्रिय करूं प्रिय ? ”

“ मेरे निकट आकर बैठो प्रिये !

नन्दिनी ने पास बैठकर हंसते -हंसते कहा -किन्तु भद्र! तुम जानते हो मैं नागपत्नी हूं, अंग से अस्पृश्य हूं। ”

“ सो मैं जानता हूं प्रिये , केवल तुम्हारे वचनामृत का ही आनन्द लाभ चाहता हूं। ”

नन्दिनी ने मद्यपात्र में सुवासित गौड़ीय उड़ेलते हुए पूछा

“ किन्तु भद्र, यह मुझे किस महाभाग के सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ? ”

“ वैशाली के एक नगण्य नागरिक का भद्रे! ”

“ वैशाली में ऐसे कितने नगण्य नागरिक हैं प्रिय , जो एक वीरांगना से केवल वाग्विलास करने का शुल्क सौ सुवर्ण दे सकते हैं ? ”

“ यह तो भद्रे, गणिकाध्यक्ष सम्भवत : बता सके , परन्तु उसके पास भी आगन्तुकों का हिसाब-किताब तो न होगा ।

“ जाने दो प्रिय , किन्तु , इस प्रियदर्शन नगण्यनागरिक का नाम क्या है ? ”

“ विदिशा की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी आज के शुभ मुहूर्त में उसका जो भी नाम निर्धारित करे , वही। ”

“ उस नाम को वैशाली का गणपद स्वीकार कर लेगा ? ”

“ न करे , उसकी क्या चिन्ता ! किन्तु विदिशा की सुन्दरी के आवास के भीतर तो उसी नाम का डंका बजेगा । ”

नन्दिनी ने हंसकर मद्यपात्र युवक के हाथ में दे दिया और हंसते हुए कहा - “ समझ गई प्रिय, आप छद्म-नाम धारण करना चाहते हैं , किन्तु इसका कारण ? ”

“ यदि यही सत्य है तो छद्म- नाम धारण करने का कारण भी ऐसा नाम धारण करने वाला भलीभांति जानता है, ” उसने मद्य पीते हुए कहा ।

“ ओह, तो मित्र , तुम कोरे तार्किक ही नहीं हो ? ”

“ नहीं प्रिये , मैं तुम्हारा आतुर प्रेमी भी हूं “ उसने खाली पात्र देते हुए कहा ।

नन्दिनी जोर से हंस दी और पात्र फिर से भरते हुए बोली - “ सत्य है मित्र, तुम्हारे प्रेम का सब रहस्य तुम्हारी आंखों और सतर्क वाणी में दीख रहा है। ”उसने दूसरा चषक बढ़ाया ।

चषक लेकर हंसते हुए युवक ने कहा - “ इसी से प्रिये, तुम चषक पर चषक देकर मेरे नेत्रों का रहस्य और वाणी की सतर्कता को धो बहाना चाहती हो । ”

“ नहीं भद्र, मेरी यह सामर्थ्य नहीं, परन्तु गणिका के आवास में आकर भी पान करने में इतना सावधान पुरुष वैशाली ही में देखा। ”

“ मगध में नहीं देखा प्रिये ? ”उसने गटागट पीकर चषक नन्दिनी को दिया । नन्दिनी विचलित हुई। रिक्त चषक लेकर क्षण - भर उसने युवक की ओर घूरकर देखा ।

युवक ने हंसकर कहा - “ यदि कुछ असंयत हो उठा होऊं तो यह तुम्हारे मद्य का दोष है; किन्तु क्या तुम्हें मैंने असन्तुष्ट कर दिया भद्रे ? ”

“ नहीं भद्र, किन्तु मैं मगध कभी नहीं गई। ”

“ ओह, तो निश्चय ही मुझे भ्रम हुआ , नीचे तुम्हारे प्रहरियों के नोकदार शिर - स्त्राण मागध व्रात्यों के समान थे इसी से । ”उसने मुस्कराकर तीखी दृष्टि से युवती को देखा ।

युवती क्षण - भर को चंचल हुई, फिर हंसती हुई बोली - “ हां , उनमें एक - दो मागध हैं , किन्तु । ”

बीच ही में उस युवक ने हंसते हुए कहा - “ समझ गया प्रिये, उन्हीं में से किसी एक ने राजगृह के चतुर शिल्पी का बना यह कुण्डल तुम्हें भेंट किया होगा! ”

नन्दिनी के होठ सूख गए । हठात् उसके दोनों हाथ अपने कानों में लटकते हुए हीरे के बहुमूल्य कुण्डलों की ओर उठ गए । उसने हाथों से कुण्डल ढांप लिए ।

युवक ठठाकर हंस पड़ा । हाथ बढ़ाकर उसने मद्यपात्र उठाकर आकण्ठ भरा और नन्दिनी की ओर बढ़ाकर कहा - “ पियो प्रिये, इस नगण्य नागरिक के लिए एक चषक । ”

नन्दिनी हंस दी । पात्र हाथ में लेकर उसने युवक पर बंकिम कटाक्षपात किया, फिर कहा - “ बड़े धूर्त हो भद्र । ”और मद्य पी गई ।

युवक ने हाथ बढ़ाकर जूठा पात्र लेते हुए कहा

“ आप्यायित हुआ प्रिय ! ”

“ क्या गाली खाकर ? ”

“ नहीं पान देकर । ”

नन्दिनी ने दूसरा चषक लेकर उसमें मद्य भरा और युवक की ओर बढ़ाकर कहा - “ अब और भी आप्यायित होओ प्रिय! ”

“ नागपत्नी की आज्ञा शिरोधार्य, ” उसने पात्र पीकर कहा - “ तो प्रिये, अब मैं चला । ”

“ किन्तु क्या मैं तुम्हारा और कुछ प्रिय नहीं कर सकती ? ”

“ क्यों नहीं प्रिये , इस चिरदास को स्मरण रखकर ! ”

युवक उठ खड़ा हुआ । नन्दिनी ने ताम्बूल - दान किया , गन्धलेपन किया और फिर उसके उत्तरीय के छोर को पकड़कर कहा - “ फिर कब आओगे भद्र ? ”

“ किसी भी दिन , नाग -दर्शन करने ! ” युवक हंसकर चल दिया । नन्दिनी अवाक् खड़ी रह गई ।

युवक ने बाहर आ दास को एक स्वर्ण दिया और वह अश्व पर सवार हो तेज़ी से चल दिया । नन्दिनी गवाक्ष में से उसका जाना देखती रही । वह कुछ देर चुपचाप सोचती रही। फिर उसने दासी को बुलाकर कहा- “ मैं अभी नन्दन साह को देखना चाहती हूं। ”

“ किन्तु भद्रे, रात तीन पहर बीत रही है , नन्दन साहु को उसके घर जाकर इस समय जगाने में बहुत खटपट होगी। ”

“ नहीं - नहीं , तू पुष्करिणी तीर पर जाकर वही गीत गा जो तूने सीखा है । साहु के घर के पीछे गवाक्ष है, वहीं वह सोता है। तेरा गीत सुनते ही वह यहां आएगा और कुछ करना नहीं होगा।

“ किन्तु भद्रे, यदि प्रहरी पकड़ लें ? ”

“ तो कहना भिखारिणी हं . भिक्षा दो । इच्छा हो तो वे भी गीत सनें । ”दासी ने फिर कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप गुप्त द्वार से बाहर चली गई ।

नन्दिनी ने अपने भीतर कक्ष में जा यत्न से एक भोजपत्र पर कुछ पंक्तियां लिखीं और उसे मोड़कर उस पर गीली मिट्टी की मुहर कर दी । फिर वह चिन्तित होकर साहु के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

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